कैसी ये मजबूरी है
बेफिजूल ये खुमारी है
कैसे कहूँ कि खुश-नसीब हूँ मैं,
अपनों की परेशानी लगे बड़ी सी,
मुसीबत में क़यास-ए-उम्मीद लगे अड़ी सी,
जब तक मुक्कमल न हुए दूसरों से
तो लगा हम ही परेशान है जहाँ से,
फ़ासले थे कुछ दूर यहाँ से,
जब देखा नंगे पांव घूमने वाले मासूम को
जेब टटोली तो पैसे न निकले
उस नादान को देने को ।
मिट्टी का मकां, मंदिर है उनका
छोटी सी दुनिया मे जहाँ है जिनका
जीवन दाव लगा देते है
अपना पेट पालने के लिए
एक रोटी ही खा लेते है
भूख मिटाने के लिए
मजबूरी में इंसान क्या कुछ नही करता
अभाव के रंग स्याही में उबलने दूँ
तो ये ज़िन्दगी मज़ाक उड़ाती है,
ये भूख है कुछ करने की,
कभी इंसान को आगे बढ़ा जाती है
कभी इंसान को कमज़ोर बनाती है
सब कुछ सिखा जाती है
फिर भी ये दुनिया अलग रंग दिखती है
राजनीति और इंसानियत में फसी
ज़िन्दगी किसी दाव पर लग जाती है
फिर दुआओं में नींद जग जाती है.
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