जो दिल से लिखे थे अल्फ़ाज़ मैंने
मिट गये वो इस मगरूर से
लोगो को गिराने में ,
अहसानों में दब गयी आवाज मेरी
अब सुनाने के लिए
वो शब्द कहाँ से लाऊं ।
यादों में बह चला है मुसाफिर
चंद दूर थी मंजिल,
बस साहस की कमी रह गयी
खुद को समझ पाना मुश्किल तो नहीं
पर अब धुन्दला सा देखे ये नज़र
शायद आंखों में नमी रह गयी
मुश्किल है राहें,
उनमे चलने के
हालात कहाँ से लाऊं ।
अब वो दौर कहां श्रोताओं का
शौक़ीन जमाना ये नेताओं का
ऐसे बेरंग दिनों में
जुबां पर वो बात कहाँ से लाऊं।
कुछ नज्मे बचा कर रखी थी मैंने
सोचा था फुर्सत ए महफ़िल में सुनाऊंगा
निराश मन से
काबिलियत और हुनर ये छिपाऊँगा
जो दर्द बचा है सीने में
उसे बयाँ करने के लिए
वो जज्बात कहां से लाऊं ।
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