किताबों सा साथी,
सच्चा सहपाठी |
हैरत में है ये तलाश,
कहाँ गुमशुम है
ये विलुप्त प्रजाति ||
बेचैन रहती हैं ये बंद क़िताबें
महीनो अब मुलाक़ात नहीं होती|
आज मसरूफ रहकर भी किताबों से
पन्नो में दर्द लिए, खुशनुमा प्रभात नहीं होती |
जो किस्से और खबरे वो सुनाती थी,
इनके लफ़्ज़ों में हयात नहीं होती|
जो रिश्ते वो दिखलाती थी,
ख़ामोशी में भी रूह को फरहात नहीं होती|
जो शामें उनकी आदत में टिका करती थी कभी,
आज नज़रें मिलने पर बिन बादल बरसात नहीं होती|
अब उनमे डूब कर भी लम्बी रात नहीं होती,
आज किताबी मुस्कान में वो खुरापात नहीं होती|
दिल को छू जाये जो अल्फ़ाज़ ,
शब्दों के खेल में वो बात नहीं होती |
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