ये अँधेरा है
जो कब से बेताब है
कुछ नया ख्वाब दिखलाने को,
और एक सुबह है
जो रोशनी में समेट ले सारे
जहाँ के सितारे को,
मुन्तज़िर है ये खुर्शीद
जो दिखाये जन्नत-ए-तस्लीम
रूबरू है मसला
ख्वाइश है आसमां को क़ल्ब से निहारने की
जो नूर सी चमकती
आफरीं है, नायाब है
खामोश सी रातों में
वो फलक से फ़कत एक महताब है,
जो लग जाता है
इतनी शिद्द्त से
सारे ख्वाब मिटाने को ।।
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