"लौट आओ अब "
आशियाने ये कहने लगे।
पुरानी गलियों में,
घूमने आओगे कब?
फ़साने ये कहने लगे ।
घूमने आओगे कब?
फ़साने ये कहने लगे ।
पतंगों में उलझे मांझे अब लड़ने लगे।
वो हिंदी की कठिन व्याख्या,
वो संस्कृत के अनगिनत श्लोक,
सब दल बदलने लगे,
एक अरसा सा हो गया है,
कहीं बचपन खो गया है,
उम्र का पहरा छा गया है।
ज़माने ये कहने लगे।
कुछ भूल गए हो तुम,
कहीं सर्दी न लग जाए,
ऊन से बुने,पुराने दस्ताने ये कहने लगे ।।
"लौट आओ अब"
आशियाने ये कहने लगे।
कागज की नाव
अब जुगत में चलने लगे ।
अल्फ़ाज़, चिट्ठी से निकल कर
अब आवाज़ों में बदलने लगे।
"लौट आओ अब"
आशियाने ये कहने लगे।
पुकारती है मीठी आवाज़,
जो छत पर बैठी कोयल सुनाती थी
चहचहाना उनका मधुर नींद लाने लगे ।
संगीतमय तराने ये कहने लगे ।
जब याद आये बीते दिन,
पुराने गीतों को हम दोहराने लगे ।
"लौट आओ अब"
आशियाने ये कहने लगे।।
"लौट आऊंगा मैं",
अहम से अनुमति तो मिले।
"दौड़ आऊंगा मैं",
स्वयं से स्वकृति तो मिले ।।
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